“ये रेडियो ही है साहब जो मन बहलाता था“
आवाज़ की दुनिया में ये हमको ले जाता था
ये रेडियो ही है साहब जो मन बहलाता था
स्क्रीन की दुनिया को भी कब तक आंखे सहन करेंगी
सुकून तो इस दिल को आखिर रेडियो ही पहुंचता था
ये रेडियो ही है साहब जो मन बहलाता था
नुक्कड़ की दुकानों पर कभी अपने पुराने ठिकानो पर
चाय की चुस्कियों में तो कभी मंज़िल पर पहुंचने वाली बग्गियों में
हर जगह बस ये अपनी याद छोड़ जाता था
ये रेडियो ही है साहब जो मन बहलाता था
बढे ही नाज़ों से रखते थे इसे हमारे दादा
था इसका घर कच्चे मकानों में बना एक छोटासा आला
दादू की कच्ची नींद को इसने सालों संभाला था
ये रेडियो ही है साहब जो मन बहलाता था
गांव के चौपालो पर एक मेला सा लग जाता था
जब क्रिकेट मैच रेडियो पर आता था
ये रेडियो ही है साहब जो मन बहलाता था
~ गौरव दुबे
रेडियो पर लिखी इस कविता की अनोखी प्रस्तुति देखने के लिए Youtube link पर click करें – Click Here