पुस्तक समीक्षा – उपन्यास ‘शर्ट का तीसरा बटन’ बालपन में चल रहे मन को झकझोर देने वाले सवालों का जवाब है
गांव का जीवन, बरगद की झूलती जड़े, बालपन का कोमल मन, कड़वे सच से आहत, विद्रोह का प्रयास।
गांव का जीवन, बरगद की झूलती जड़े, बालपन का कोमल मन, कड़वे सच से आहत, विद्रोह का प्रयास।
8 मार्च के दिन महिलाओं के अतुलनीय योगदान को सम्मानित करने के लिए विश्वभर में अंतरराष्ट्रिय महिला दिवस मनाया जाता है। इस लेख के माध्यम से, हम हिन्दी साहित्य के परिपेक्षय से महिलाओं की वर्तमान स्थिती एवं साहित्य में हुए नारी विमर्श पर चर्चा करेंगें ।
कभी यूँ भी तो हो की वो गुज़रा बचपन वापस आजाये, कभी यूँ भी हो की वो माँ का शीतल अंचल वापस आजाये, कभी यूँ भी हो की उस एक प्रेम पत्र का जवाब आजाये, कभी यूँ भी हो की वो बिता वक़्त वापस आजाये, कभी यूँ भी हो… कभी यूँ भी हो… ये “कभी यूँ भी हो” का ख़्याल हमारी अधूरी इक्षाओं को हमारे विचारों के माध्यम से पूरा करता है। उन इक्षाओं को जो शायद कभी पूरी हो भी सकती थीं और उन इक्षाओं को भी जो कभी पूरी नहीं होतीं। ख़ेर जो भी हो पर ये “कभी यूँ भी हो” का ख़्याल हमें एक आशा ज़रूर देता हैं। इसी आशा को अपनी एक कविता के माध्यम से दर्शाती हैं हरियाणा की रहने वाली हमारे JMC साहित्य की एक नई सदस्य डिम्पल सैनी उर्फ़ जुगनी। डिम्पल 2016 से अब तक मीडिया के कई क्षेत्रों (समाचार पत्र, न्यूज़ चैनल और रेडियो) का अनुभव ले चुकी है साथ ही आप दो महाविद्यालयों में असिस्टेंट प्रोफेसर के पद पर भी रहीं हैं। साहित्य और काव्य में इनकी ख़ास रूचि है।
मेहबूब के आशिक़ जिस तरह जिससे हम प्यार करते हैं उससे सिर्फ हम ही प्यार नहीं करते उसके कई आशिक़ होते हैं। वैसे ही हमारे देश की स्वर कोकिला लता मंगेशकर जी के चाहने वाले भी करोड़ो हैं। आज भले लता जी हमारे साथ नहीं है लेकिन वह हमेशा अपनी आवाज़ में ज़िंदा रहेंगी। उनके गये हुए नग्मे हम कभी भुला नहीं पाएंगे। क्यों न इस बार का वैलेंटाइन्स डे उनके नाम किया जाए जिन्होंने हमे गीतों के ज़रिये मोहोब्बत करना सिखाया। आज में गौरव दुबे लता जी को कवितांजलि देता हूँ। और अपनी लिखी नज़्म मेहबूब के आशिक़ उन्हें समर्पित करता हूँ। Lata ji wish you a very happy valentines day
ये रेडियो (radio) ही है साहब जो मन बहलाता था। रेडियो के सम्मान में और उसे हमारी यादों में हमेशा ज़िंदा रखने के लिए यूनेस्को द्वारा साल 2011 में प्रत्येक वर्ष 13 फरवरी को विश्व रेडियो दिवस मनाने का निर्णय लिया गया था। जिसके बाद साल 2012 में 13 फरवरी के दिन विश्व रेडियो दिवस को पहेली बार मनाया गया। आज विश्व रेडियो दिवस के इस मौके पर जे.एम.सी साहित्य की पूरी टीम आपको इस दिन की बधाई देती है और गौरव दुबे द्वारा लिखित रेडियो से जुड़ी यादों पर ये लघु कविता उपहार स्वरुप देती है और आशा करती है की इसे पढ़कर आपकी भी रेडियो से जुड़ी कोई याद ताज़ा होजाये। World Radio Day 13 February
बुराई पर अच्छाई की जीत होने के बाद आईं खुशियों का ये त्यौहार दीपावली, दीयों की रौशनी के बीच श्री राम के आगमन का ये त्यौहार दीपावली, माँ लक्ष्मी की कृपा ले कर आने वाला ये त्यौहार दीपावली। नमस्कार मैं गौरव दुबे एक बार फिर आपके सामने अपनी एक कविता के साथ उपस्थित हूँ। सबसे पहले आप सभी को दीपावली या दिवाली जो भी कहें। आज के इस पावन पर्व की ढे़रों शुभकामनाये…..
आज इस कविता को आप पढ़े, उससे पहले मैं इस कविता के बारे में आपको कुछ बताना चाहूंगा। दिल से पढ़िएगा, तो आपने लोगों से, ख़ास तौर पर पुराने लोगों से ये ज़रूर सुना होगा कि,”अब के त्योहारों में पहले जैसी बात नहीं रही” या “हमारे ज़माने में सही माईनो में त्यौहार मनाये जाते थे, अब तो त्यौहार आते हैं और चले जाते हैं. उनमे कोई रंगत ही नहीं बची” वैसे देखा जाये तो एक तरह से ये बातें सच भी हैं। अब सड़कों पर फटाकों का शोर सुनाई नहीं देता और न ही बच्चों के चेहरों पर पहले जैसी ख़ुशी दिखाई देती है। अब मोबाइल की रोशनी में हम इतना खो जाते हैं की घर को रौशन करना याद ही नहीं रहता, हाँ वैसे ये कविता आप अपने मोबाइल में ही पढ़ रहे हैं तो में बता दूँ कि मैं इसमें खोने की बात कर रहा हूँ, इसका उपयोग बंद करने की नहीं । खैर मैं बता रहा था, हमारे त्योहारों के बारे में, तो हाँ, कुछ हद तक त्यौहार पहले जैसे नहीं रहे। बात करें दिवाली की तो बस ये एक शब्द बन के रह गई है या यूँ कहूं की अब दिवाली दिलवाली नहीं रही। दिलवाली ! जिसे पहले दिल से मनाया जाता था और आज उसी दिलवाली दीवाली या दीपावली को याद करते हुए ये कविता लिखी है और इसे आप अपने अनुभवों से जोड़के पढ़ना क्योकि ये सिर्फ मेरी नहीं हम सबकी कहानी है। कविता का शीर्षक है ” हमने दिवाली दिलवाली मनाई ”
काफ़िर ( Kaafir ) , ये शब्द कुछ लोगों को या यूँ कहूं की हमारे समाज में ज़्यादातर को नाग़वार सुनाई देता है। “ख़ुदा या ईश्वर के अस्तित्व से ही इनकार करने वाला शक़्स काफ़ीर” क्या बस यहीं तक सिमित है।इसका अर्थ, शायद “हर चीज़ को सामने होता देख फिर उसी की सच्चाई पर सवाल उठाने वाला भी काफ़िर हो सकता है” या काफ़िर शब्द वो लेबल भी हो सकता है, जो असल मुद्दे से भटकाने के लिए कमज़ोरों और तानाशाही से तंग लोगों के हक की लड़ाई लड़ रहे क्रांतिकारियों पर लगाया गया हो। ख़ैर मुद्दा हल तो नहीं होता बस उछाला और भटकाया जाता है उन पियादों के ज़रिये जिन्हें उनके पीछे बैठा कोई तानाशाह हुक्म देता है। ऐसे में शिकार होते हैं वो जो क्रन्तिकारी थे और अब काफ़िर बना दिए गए।
इसी सच्चाई पर अपने मन की व्यथा अपनी एक नज़्म में लिखती है बनारस की शैली मिश्रा ।
हम अपने जज़्बात अपनी ज़िंदगी में वैसे तो हर शक़्स के साथ बांट लेते हैं, बस नहीं बांट पाते हैं तो अपने पिता के साथ। पिता, पिता जी, बाउजी, पापा, डैड, मुख़्तलिफ़ नाम हैं उस रिश्ते के, जो अपना सब कुछ निछावर कर देता है बस अपने बच्चों के होठों की मुस्कराहट के ख़ातिर। मुझे लगता है आम बोल-चाल की भाषा तो कभी इस लायक नहीं बनेगी की हम उसके ज़रिये अपने दिल की बात कभी पापा से कह पाएं। हाँ, कविताओं के पास ये ताकत जरूर है। ताकत हर तरह के जज़्बात को बयां करने की और जब कुछ बोला नहीं जाता तब लिखा जाता है। वो जो दिल में था, वो जो कहना आसान नहीं था।
कुछ ऐसा ही अपने शब्दों के माध्यम से लिखा है रायसेन के देवनगर में रहने वाले युवा कवि दीपक मेहरा ने..
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