मैं तो केवल दूरदर्शन देखता हूं, बड़ी शांति से बात करते हैं- विकास मिश्रा

Gaurav Dubey

Gaurav Dubey

jaankari@jmcstudyhub.com

भारत में टेलीविजन पत्रकारिता परिपक्व होने से पहले ही कुपोषित हो गया है। आप इसकी कल्पना नहीं कर सकते। आप उसे खिला-पिला कर बहुत हेल्दी बना लेंगे, ऐसा संभव नहीं है। विदेशी टीवी चैनल को देखिए, कितनी आसानी से अपनी बात रखते हैं। हमारे यहां एंकर शुरू होता है तो ऐसा लगता है कि मानो वह पूरे देश को बहरा मानकर चल रहा है कि जब तक हम जोर से नहीं बोलेंगे तब तक बहरे हमारी बात नहीं सुनेंगे।

परिचय: विकास मिश्रा बिहार के मुज़फ्फरपुर से आते हैं। आप पिछले 10 वर्षो से लोकमत समाचार में संपादक की भूमिका निभा रहे हैं। इससे पहले भी आप दैनिक भास्कर, नवदुनिया और कई अन्ये अखबारों में भी पत्रकार के तौर पर काम कर चुके हैं।पत्रकारिता के संबंध में कई देशों की यात्रा भी आपने की और तीन पुस्तकों को भी लिखा। आपको तीन बार राजेंद्र माथुर श्रेष्ठ रिपोर्टिंग अवार्ड, गोपीकृष्ण गुप्ता श्रेष्ठ रिपोर्टिंग अवार्ड, फोटोग्राफी में कई राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय पुरस्कारों से भी सम्मानित किया जा चुका है।

पत्रकार विकास मिश्रा ने ‘JMC Interview‘ के दौरान पत्रकारिता से जुड़े कई महत्वपूर्ण सवालों का जवाब दिया और साथ ही अपने अनुभव को हमारे साथ सांझा किया। Interview के पहले भाग में पूछे गए सवाल जिनका विकास मिश्रा ने विस्तार में जवाब दिया ।


प्रश्न 1. हिंदी अखबारों में अन्य भाषाओं की मिलावट नज़र आ रहे हैं। इसे आप कैसे देखते हैं?

उत्तर – हिंदी के साथ एक बहुत बड़ी समस्या यह पैदा हुई कि आज़ादी से पहले हिंदी में साहित्य का सृजन तो हो रहा था लेकिन हिंदी सत्ता की भाषा नहीं थी। भारत में सत्ता की भाषा उर्दू थी। जब हम आज़ाद हुए और हमने हिंदी की तरफ ध्यान देना शुरू किया, तो दुर्भाग्य से ऐसा हुआ कि हमने संस्कृत निष्ठ हिंदी को शामिल कर लिया जो आम बोलचाल की भाषा में नहीं थी। इसका नतीजा यह हुआ कि लोग मानने लगे कि हिंदी बहुत कठिन भाषा है। सरलीकरण के नाम पर जो लोग भाषा में कमजोर थे उन्होंने हिंदी में अंग्रेजी को लाना शुरू कर दिया। किसी भाषा में किसी दूसरी भाषा का समीकरण बुरा नहीं है लेकिन जब आप हिंदी को हिंग्लिश बनाने लगते हैं तो यह बड़ी समस्या होती है।

इसी प्रश्न में उदाहरण देते हुए विकास मिश्रा ने कहा कि मैं दैनिक भास्कर और नवदुनिया जैसे अखबारों में रहा जिनमें से मैं करीब दो दशक तक नवदुनिया में रहा। नवदुनिया हमेशा से भाषा के लिए जानी गई है। पूरे हिंदुस्तान में उससे बेहतर भाषा किसी और अखबार के पास कभी नहीं रही। उस संस्थान में मुझे याद है कि अगर एक मात्रा की भी गलती हो जाती थी तो पूरे संस्थान में हंगामा मच जाता था। लेकिन आज वैसी स्थिति नहीं है। आज वक्त के साथ उसमें बदलाव आ रहा है लेकिन उसमें हिंग्लिश के प्रयोग से मैं सहमत नहीं हूं। अंग्रेजी के शब्दों का हिंदी भाषा में बेवज़ह उपयोग नहीं होना चाहिए। जिन बच्चों को आगे बढ़ना है उन्हें भाषा सीखनी होगी। अंग्रेजी की एक सीमा है। अंग्रेजी भाषा में यह ताकत नहीं है कि वह सभी भावों को व्यक्त कर सके। उदाहरण स्वरूप अंग्रेजी भाषा में सिर्फ स्माइल और और लाफ़ है। हमारे यहां मुस्कान, मुस्की मारना जैसे कई शब्द हैं। हमारे यहां के गांव में जाकर देखें तो वहां एक अर्थ के कई शब्द मिल जाएंगे। हमारी भाषा ज्यादा सशक्त है।

प्रश्न 2. आपने कई देशों की यात्रा की है उससे संबंधित किताब भी आपने लिखी है तो पत्रकारिता की दृष्टि से किस देश की पत्रकारिता आपको ज्यादा अच्छी लगी?

(विकास मिश्रा की पर्यटन पर किताब “चलें धारा की ओर है” )

उत्तर – मुझे लगता है कि मैं जिन देशों में भी गया और जिन देशों की पत्रकारिता से इक्तिफ़ाक रखता हूं, अपने परिवेश में सब बेहतर कर रहें हैं। जब हम कहते हैं कि कुछ लोग बुरा कर रहे हैं तो बुरा तो हर जगह है। बुरे को ना गिनती करे। दुनिया में देव और दानव हमेशा से रहे हैं। हर प्रोफेशन में देव भी हैं और दानव भी हैं। तो हर देश की पत्रकारिता अपने परिवेश में ठीक है। मैं किसी को बुरा नहीं कहना चाहूंगा, बाकी अच्छा तो सब है।

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प्रश्न 3. आपका कहना है कि बुरे की ओर ध्यान न देकर अच्छे की ओर देखें लेकिन भारत में पत्रकारिता की वर्तमान स्थिति देखते हैं तो निराश हाथ आती है। जहां 180 में से भारत वर्ल्ड प्रेस फ़्रीडम इंडेक्स में 142वे स्थान पर है। तो जब बुराई इतनी ज्यादा हो तो क्या उसकी तरफ ध्यान दें या नही?

उत्तर – जब हमारे पूर्वज आजादी की लड़ाई लड़ रहे थे। तब आजादी की लड़ाई लड़ने वालों की संख्या कम थी और अंग्रेजों की फौज की संख्या ज्यादा थी। लेकिन सफलता तो हम आजादी के मतवालों को ही मिली। तो कभी भी जो नेगेटिव चीजें होती है वह इतनी प्रभावशाली नहीं होती। अगर एक व्यक्ति सत्य के साथ खड़ा होगा तो बाकी के 10 चुप हो जाएंगे। अगर एक राम होते हैं तो वह उस समय के सभी दानवों का नाश करते हैं। सत्य में जो ताकत है, जो आपके अंदर ज्ञान हैं, उसकी अपनी शक्ति होती है और बुराई तो हमेशा से है उससे घबराने की जरूरत नहीं है। उसका प्रतिकार जरूरी है। लेकिन जो व्हाट्सएप और फेसबुक पर चल रहा है ऐसा प्रतिकार नहीं। मैं फेसबुक पर नहीं लिखता हूं। वहां जाकर बकवास करना अपनी उर्जा का का नष्ट करना है। कोई मतलब नहीं है।

मान लीजिए अगर इस समय वैक्सीनेशन हो रहा है और सरकार कह रही है कि वैक्सीनेशन हम दिसंबर तक पूरा करेंगे तो आप कहिए कि हम सरकार की बात मानते हैं लेकिन मेरे मन में एक सवाल है कि अगर हम हर महीने 20 करोड़ वैक्सीन ही पैदा करते हैं तो हम 90 करोड़ लोगों को दिसंबर तक वैक्सीन कैसे लगाएंगे? एक सवाल खड़ा कीजिए इसमें लड़ने की जरूरत नहीं है। जो समर्थन में है उनके सामने सवाल खड़ा कर दीजिए वह जवाब नहीं दे पाएंगे।

चर्चा का अगला भाग

अब हम बढ़ते हैं हमारे इंटरव्यू के दूसरे भाग की ओर जिसका नाम है “ज़रा रफ़्तार से”। इस भाग में हम सामने वाले व्यक्ति से एक शब्द कहते है या कोई भी सवाल पूछते हैं जिनका उन्हें जवाब एक शब्द या एक वाक्य में देना होता है। यह जवाब वह अपने अनुभव से देते हैं।

शब्द – पत्रकारिता

व्याख्या – आम आदमी की भावनाओं को अभिव्यक्त करने वाला माध्यम

शब्द – डेमोक्रेसी

व्याख्या – खुद को बेहतर तरीके से अभिव्यक्त करने की जीवनशैली

शब्द – विकास

व्याख्या – निरंतर आगे बढ़ते रहने की चाह

प्रश्न – अपने पूरे जीवन और उसमे प्राप्त किये गए अनुभव को एक शब्द या वाक्य में क्या कहेंगे?

उत्तर – खुद को जानने का अवसर

शब्द – हिंदी पत्रकारिता

व्याख्या – दुनिया का बहुत प्रभावशाली और बहुत प्रशंसनीय माध्यम

शब्द – पत्रकारिता और साहित्य

इन दोनों शब्दों के संबंध का विस्तार जवाब देते हुए विकास मिश्रा ने बताया कि – साहित्य एक ऐसी विधा है जिसमें आप अपने परिवेश को ज्यादा आत्मिक रूप से जान पाते हैं। एक पत्रकार के रूप में जो आपका जानना होता है उसमें हो सकता है कि ज्यादा गहराई ना हो। उसमें एक सतह पन हो लेकिन जब पत्रकारिता साहित्य से जुड़ती है तो उसके साथ मन और भावना के साथ जुड़ती है जिसको अलग नहीं किया जा सकता। जब वह भाव लेखन में आता है तो, उदाहरण स्वरूप एक किताब है नाचो बहुत गोपाल उसके लेखक हैं अमृतलाल नागर उस किताब में एक दिलचस्प कहानी है जिसमें ब्राह्मण की लड़की किसी मैंतर के साथ भाग जाती है और उसके बाद जो उसके जीवन का बदलाव होता है उसको लेकर उन्होंने एक रिपोर्टिंग की और वो पूरी एक किताब है। तो पत्रकारिता में जब साहित्य होता है तो आप बहुत बेहतर कर पाते हैं।

चर्चा का तीसरा भाग

इंटरव्यू के तीसरा भाग जिसका नाम है “सवाल सबका” जिसमे हम देश भर से विद्यार्थियों के सवालों को पूछते है।

प्रश्न 1. लॉकडाउन के कारण सभी विद्यार्थी अपने घरों में हैं। ऐसे में खासतौर पर पत्रकारिता के विद्यार्थी जिनका प्रैक्टिकल काम ज्यादा होता है वह अब कुछ नया सीख नहीं पा रहे, ऐसे में अब क्या किया जाए जिससे आने वाले समय में वह पत्रकारिता के क्षेत्र में अपनी जगह बना सके?

(यह प्रश्न अयोध्या की रहने वाली आयुषी सिंह का है जो इस समय पत्रकारिता में मास्टर डिग्री कर रहीं हैं)

उत्तर – सबसे पहले तो आप अखबार रोज पढ़ें। मैं आपको टीवी देखने की सलाह बिल्कुल नहीं दूंगा। क्योंकि भारतीय टेलीविजन की पत्रकारिता बड़ी विचित्र है। मुझे नहीं लगता कि वह कोई पत्रकारिता है। लेकिन आप इन दिनों में कुछ टेलीफिल्म्स देखिए क्योंकि टेलीफिल्म्स के माध्यम से हम अपने समाज को अच्छे से समझ सकते हैं। इसलिए टेलिफिल्म्स देखें, किताबें और अखबार पढ़ें। इसके अलावा जो भी घटनाक्रम हो रहा है उसके बारे में सोचिए, ऐसा क्यों हो रहा है, क्योंकि जब आपके अंदर सवाल पैदा होंगे तब आप उनके जवाब ढूंढने के लिए आगे बढ़ेंगे और जब जवाब ढूंढ लेंगे तो उस विषय को बेहतर तरीके से समझ पाएंगे।

प्रश्न – आपने जवाब में इलेक्ट्रॉनिक मीडिया का जिक्र किया बिल्कुल इस समय की स्थिति बहुत नाजुक है तो क्या आपको भविष्य में इस में कोई सुधार नजर आता है ?

उत्तर – मैं आपको बताऊं कि भारतीय टेलीविजन के इतिहास में डिबेट की शुरुआत की थी एसपी सिंह (सुरेंद्र प्रताप सिंह) ने जो भारतीय टेलीविजन पत्रकारिता के पितामह और जनक भी कहलाए जाते हैं। उन्होंने डिबेट की शुरुआत इसलिए की थी क्योंकि वह यह जानते थे कि पत्रकार हर विषय के बारे में थोड़ा बहुत जानता है लेकिन यह जरूरी नहीं है कि वह हर विषय के बारे में बहुत बेहतर तरीके से जानता हो। उन्होंने सोचा कि अगर हम अलग-अलग विषयों के विशेषज्ञों को बुलाते हैं और उनकी आपस में चर्चा करवाते हैं। लेकिन आज विषय के विशेषज्ञ तो रहे ही नहीं उल्टा आज जो टीवी पर लोग आ रहे हैं उन पर मुझे बहुत हंसी आती है कि यह लोग कहां से आकर यहां पर बैठ गए। मैं कांग्रेस के एक प्रवक्ता को देखता हूं जिनका चेहरा आजकल हमेशा दिखता है। वह इंदौर के रहने वाले हैं वो स्थानीय लेवल के नेता भी नहीं थे। वो वहां पार्षद नहीं बन पाए इस वक्त टीवी वालों ने उन्हें प्रवक्ता बना दिया है और वह टीवी पर बैठकर बकवास करते हैं। एक संबित पात्रा आते हैं और वह भी बकवास करना शुरू कर देते हैं। कोई जानकारी नहीं है। आप पूछ रहे हैं कि भविष्य क्या है, भारत में टेलीविजन पत्रकारिता परिपक्व होने से पहले ही कुपोषित हो गया है। आप इसकी कल्पना नहीं कर सकते। आप उसे खिला-पिला कर बहुत हेल्दी बना लेंगे ऐसा संभव नहीं है। विदेशी टीवी चैनल को देखिए कितनी आसानी से अपनी बात रखते हैं। हमारे यहां एंकर शुरू होता है तो ऐसा लगता है कि मानो वह पूरे देश को बहरा मानकर चल रहा है कि जब तक हम ज़ोर से नहीं बोलेंगे तब तक बहरे हमारी बात नहीं सुनेंगे।

प्रश्न – 2. अखबारों में ख़बर की जगह इश्तेहार ने ले ली है और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में एक ही विषय के ऊपर ध्यान दिया जाता है अन्य विषयों को नजरअंदाज कर देते हैं?

(यह प्रश्न भोपाल के रहने वाले आदित्य श्रीवास्तव ने उपभोक्ता के तौर पर पूछा है)

उत्तर – इसमें दो बातें हैं पहली यह कि अखबारों में खबर की जगह इश्तिहारों ने ले ली है। एक पुरानी कहावत है भूखे भजन न होय गोपाला । जब भूखे रहकर ईश्वर का भजन नहीं हो सकता तो पत्रकारिता कैसे होगी। अखबार के लिए विज्ञापन बहुत जरूरी है। अगर आपके पास विज्ञापन नहीं होगा तो क्या आपका अखबार बाजार में टिक पाएगा बिल्कुल नहीं टिक पाएगा। वह इसलिए नहीं टिक पाएगा क्योंकि भारत में मुफ्त की आदत इतनी खराब है कि हम उस मुख्यमंत्री को लगातार जिताते रहते हैं जो हमें एक रुपए किलो चावल देता है। हम यह नहीं देखते कि हमारे प्रदेश की आर्थिक दुर्दशा कैसी है। उदाहरण स्वरूप एक अखबार में मैं काम करता था, अखबार के मालिक ने मुझसे कहा कि हमारा अखबार बहुत चलेगा। मैंने पूछा कि कैसे? उन्होंने कहा कि अगर जरूरत पड़ेगी तो हम अखबार के साथ एक 20 रुपए का नोट भी दे देंगे। यह सवाल भोपाल से पूछा गया है तो वह अखबार मालिक भोपाल से ही है। तो वह अखबार नहीं चला वह 20 रुपए का नोट भी देना चाहते थे लेकिन अखबार नहीं चला क्योंकि अखबार चलने के लिए आपके पास बेहतर सामग्री होनी चाहिए और बेहतर सामग्री इकट्ठा करने के लिए आपके पास साधन होना चाहिए और साधन आएंगे विज्ञापन से, लेकिन विज्ञापन पूरे अखबार में नहीं होता। मान लीजिए ज्यादा से ज्यादा विज्ञापन अखबार के 50% हिस्से में है वैसे इतना विज्ञापन किसी अखबार में नहीं आता। ज्यादा से ज्यादा 40-50% आपके अखबार में विज्ञापन है तो आपके पास 50 से 60% जगह बची हुई है। और दूसरी बात आपने एक शब्द का इस्तेमाल किया है न्यूज़ कंजूमर। जब आप खुद को कंजूमर के तौर पर ढ़ाल देते हैं। तो उस समय आपको विज्ञापन की भी जरूरत होती है। क्योंकि यह जानने के लिए कि स्कूटर विस्पा का खरीदना है या बजाज का या किस कंपनी का ? तो विज्ञापन भी न्यूज़ फॉर्मेट है इसलिए विज्ञापन तो चाहिए जो लोग इस तरह की बात करते हैं, वह आदर्श स्थिति की कल्पना करते हैं। वो रामराज की कल्पना करते हैं और चाहते हैं कि पत्रकारिता इतना सात्विक हो जाए और टीवी के साथ एक बड़ी बात यह हुई है कि वहां खबर के नाम पर खर्च ख़त्म हो गया है अब वो ख़बर के लिए खर्च नहीं करते। अगर कोई रिपोर्टर कहीं जाएगा वह खबरों को ढूंढेगा, उससे संबंधित कागज निकलवाएंगे, तो इसमें खर्च होगा। टाइम भी खर्च होगा और पैसा भी लेकिन मान लीजिए अगर दिल्ली के आसपास कोई घटना हो गई तो 3 रिपोर्टर चले जाएंगे और वहां के बारे में बकवास शुरू कर देंगे इसलिए जो भारतीय टेलीविजन पत्रकारिता है वो दिल्ली के आसपास सिमटा हुआ है। उसको मतलब नहीं है कि भोपाल में क्या हो रहा है? भोपाल तो फिर भी आ ही जाता है लेकिन रायसेन में क्या हो रहा है उसको पता नहीं है और ना ही उनको इस चीज की जरूरत है। वह 3 दिन बाद बताते हैं कि रायसेन में क्या हुआ है। भारतीय टेलीविजन पत्रकारिता के बारे में बात करने का कोई मतलब नहीं है। मैं तो केवल दूरदर्शन देखता हूं। दूरदर्शन वाले बड़ी शांति से बात करते हैं।

इस वक़्त आपने पढ़ा JMC के माध्यम से लिया गया लोकमत समाचार के संपादक विकास मिश्रा का इंटरव्यू। इंटरव्यू को सुनने के लिए आप JMC Study Hub के YouTube चैनल पर जा सकते हैं उसमें आप इंटरव्यू के आखरी भाग जिसका नाम है घर की बात देख सकते है जिसमे हम सामने वाले व्यक्ति से वेबसाइट के संबंध में सलाह लेते है और बात करते हैं।

आखिर में उम्मीद करते हैं कि आपको इस इंटरव्यू से बहुत कुछ जानने को मिला होगा। धन्यवाद

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