मध्यप्रदेश में होशंगाबाद के बाबई में 4 अप्रैल 1889 में पत्रकारिता और साहित्य के क्षेत्र में अपनी पहचान बनाने वाले “पं. माखनलाल चतुर्वेदी” का जन्म हुआ। जिन्हें अपनी राष्ट्रवादी कविताओं के लिए भी जाना जाता है। जिन्होंने असहयोग आंदोलन के दौरान अंग्रेज़ों के खिलाफ खूब लिखा। 1921 में पंडित जी को देश के लिए जेल भी जाना पड़ा। इस दौरान 5 जुलाई 1921 को इन्होंने “पुष्प की अभिलाषा” नामक कविता की रचना भी की। कविता में वह बागों में खिलने वाले पुष्पों से उनकी चाह के बारे में पूछते हैं कि उनकी कहाँ जाने की ख्वाइश है और पुष्प कहते हैं कि वह उन देश भक्तों के चरणों के नीचे आना चाहते हैं जो मातृभूमि के खातिर अपना शीष भी कुर्बान करने के लिए तैयार हैं। आज पंडित जी की उसी कविता के 100 वर्ष पूरे हो चुके हैं। आज के इस मौके पर आप के समक्ष प्रस्तुत है पं. माखनलाल चतुर्वेदी द्वारा रचित “पुष्प की अभिलाषा” ।
पुष्प की अभिलाषा
चाह नहीं, मैं सुरबाला के,
गहनों में गूँथा जाऊँ।
चाह नहीं प्रेमी-माला में बिंध,
प्यारी को ललचाऊँ।
चाह नहीं सम्राटों के शव पर,
हे हरि डाला जाऊँ।
चाह नहीं देवों के सिर पर,
चढूँ भाग्य पर इठलाऊँ।
मुझे तोड़ लेना बनमाली,
उस पथ पर देना तुम फेंक।
मातृ-भूमि पर शीश- चढ़ाने,
जिस पथ पर जावें वीर अनेक।
~ पं. माखनलाल चतुर्वेदी