अख़बार : इंक़लाब से इश्तिहार का सफर

Gaurav Dubey

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jaankari@jmcstudyhub.com

अलग अलग समय पर शायरों ने जहाँ एक तरफ अखबार पर अपना भरोसा जताया वहीं अखबार की बदलती सूरत को देख अपना आक्रोश भी दिखाया। आज अख़बार के इसी सफर को दिखिए अलग अलग वक़्त के शेयरों की रचनाओं में –
अख़बार पर शायरी
जब से अख़बार ने साहित्यकारों से बात करना शुरू की तब से ही हालात बदलते गए और साहित्यकारों के अख़बार को लेकर ख़्याल भी।1780 में शुरू हुआ भारत में अखबार का सफर. आज हर शहर से लेकर हर गाँव तक अपनी जगह बना चुका है। जो कहींं न कहींं इंक़लाब की चिंगाड़ी को लेकर पैदा हुआ, कई मुश्किलों का सामना किया और आज कइयों ने इंक़लाब की चिंगाड़ी को बुझा कर इश्तिहार की ठंढ़ी हवा में खुद को परेशानियों की धूप से बहुत दूर कर लिया। हालांकि अख़बार में इश्तिहारों का होना बहुत जरूरी भी है। एक बेहतर अख़बार बनाने के लिए भी और ख़बर के नज़रिए से भी क्योंकि किसी चीज़ का इश्तिहार जनता को जानकारी भी देता है जिसकी उन्हें ज़रूरत है लेकिन सिर्फ़ इश्तिहार ख़बर नहीं होते। यहाँ इश्तिहार का मतलब अखबारों में आये बदलाव से है कि किस तरह सच को लोगों के सामने लाने की उमंग व्यापार में तब्दील हुई और शायद यही वजह रही कि अलग-अलग समय पर शायरों ने जहाँ एक तरफ अख़बार पर अपना भरोसा जताया वहींं अखबार की बदलती सूरत को देख अपना आक्रोश भी दिखाया। आज अख़बार के इसी सफर को देखिए अलग-अलग वक़्त के शायरों की रचनाओं में,

अख़बार शब्द पर शायरी

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खींचों न कमानो को न तलवार निकालो,
जब तोप मुकाबिल हो तो अख़बार निकालो ।
~ अक़बर इलाहाबादी
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जो दिल को है ख़बर कहींं मिलती नहींं खबर,
हर सुबह एक अज़ाब है अख़बार देखना ।
~ उबैदुल्लाह अलीम
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कौन पढ़ता है यहां खोल के दिल की किताब,
अब तो चेहरे को ही अख़बार किए जाना है ।
 ~ राजेश रेड्डी
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कोई कॉलम नहींं है हादसों पर,
बचाकर आज का अख़बार रखना ।
~ अब्दुस्समद “तपिश”
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सुर्खियां खून में डूबी हैं सब अख़बार की,
आज के दिन कोई अख़बार न देखा जाए ।
~ मखमूर सईदी
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बन के इक हादसा बाज़ार में आ जाएगा ।
जो नहीं होगा वो अख़बार में आ जाएगा ।
चोर उचक्कों की करो कद्र की मालूम नहीं,
कौन कब कौन-सी सरकार में आ जाएगा ।
~ राहत इंदौरी
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वो जिसका तीर चुपके से जिगर के पार होता है ।
वो कोई गैर क्या अपना ही रिश्तेदार होता है ।
किसी से अपने दिल की बात तू कहना ना भूले से,
यहां ख़त भी ज़रा सी देर में अख़बार होता है ।
~ कुमार विश्वास
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एक-दो दिन मे वो इकरार कहाँ आएगा ।
हर सुबह एक ही अख़बार कहाँ आएगा ।
आज जो बांधा है इन में तो बहल जायेंगे,
रोज इन बाहों का त्योहार कहाँ आएगा ।
~ कुमार विश्वास
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मुफ़्त की कोई चीज बाज़ार में नहीं मिलती ।
किसान के मरने की सुर्खियां अख़बार में नहीं मिलती ।
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बंद लिफाफा थी जो अब इश्तिहार हो गयी ।
मेरी मासूम सी मोहब्बत अखबार हो गयी ।
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वहीं किस्से वही कहानियाँ मिलेंगी हमेशा मुझमें,
मैं कोई अखबार नहीं जो रोज़ बदल जांऊ।
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JMC साहित्य के कॉलम ‘शब्द शायरी’ में आज ‘अख़बार’ शब्द पर शायरियों का संग्रह आपने पढ़ा। उम्मीद है कि इस संग्रह से आपकी खोज पूरी हुई होगी। JMC साहित्य के लेख, संग्रह आदि में सुधार हेतु अपने महत्वपूर्ण सुझाव जरूर दें।

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