कभी यूँ भी तो हो की वो गुज़रा बचपन वापस आजाये, कभी यूँ भी हो की वो माँ का शीतल अंचल वापस आजाये, कभी यूँ भी हो की उस एक प्रेम पत्र का जवाब आजाये, कभी यूँ भी हो की वो बिता वक़्त वापस आजाये, कभी यूँ भी हो… कभी यूँ भी हो… ये “कभी यूँ भी हो” का ख़्याल हमारी अधूरी इक्षाओं को हमारे विचारों के माध्यम से पूरा करता है। उन इक्षाओं को जो शायद कभी पूरी हो भी सकती थीं और उन इक्षाओं को भी जो कभी पूरी नहीं होतीं। ख़ेर जो भी हो पर ये “कभी यूँ भी हो” का ख़्याल हमें एक आशा ज़रूर देता हैं। इसी आशा को अपनी एक कविता के माध्यम से दर्शाती हैं हरियाणा की रहने वाली हमारे JMC साहित्य की एक नई सदस्य डिम्पल सैनी उर्फ़ जुगनी। डिम्पल 2016 से अब तक मीडिया के कई क्षेत्रों (समाचार पत्र, न्यूज़ चैनल और रेडियो) का अनुभव ले चुकी है साथ ही आप दो महाविद्यालयों में असिस्टेंट प्रोफेसर के पद पर भी रहीं हैं। साहित्य और काव्य में इनकी ख़ास रूचि है।
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मेहबूब के आशिक़ – गौरव दुबे
मेहबूब के आशिक़ जिस तरह जिससे हम प्यार करते हैं उससे सिर्फ हम ही प्यार नहीं करते उसके कई आशिक़ होते हैं। वैसे ही हमारे देश की स्वर कोकिला लता मंगेशकर जी के चाहने वाले भी करोड़ो हैं। आज भले लता जी हमारे साथ नहीं है लेकिन वह हमेशा अपनी आवाज़ में ज़िंदा रहेंगी। उनके गये हुए नग्मे हम कभी भुला नहीं पाएंगे। क्यों न इस बार का वैलेंटाइन्स डे उनके नाम किया जाए जिन्होंने हमे गीतों के ज़रिये मोहोब्बत करना सिखाया। आज में गौरव दुबे लता जी को कवितांजलि देता हूँ। और अपनी लिखी नज़्म मेहबूब के आशिक़ उन्हें समर्पित करता हूँ। Lata ji wish you a very happy valentines day
UPSC में पत्रकारिता से परहेज़ क्यों ? – Prof. K G Suresh
भारत की पत्रकारिता वक़्त के साथ-साथ कई परिवर्तनों का सामना कर चुकी है और लगातार कर रही है। जनता तक खबर पहुंचने के अलावा अब पत्रकारिता की शिक्षा ने भी शिक्षा के चैत्र में नए आयामों को हासिल लिया है। शिक्षा में पत्रकारिता के इसी रूप पर ख़ास चर्चा की JMC टीम ने माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो. के जी सुरेश ( Prof. K G Suresh MCU Vice Chancellor ) के साथ…..
मैं काफ़िर था ( Kaafir ) – शैली मिश्रा
काफ़िर ( Kaafir ) , ये शब्द कुछ लोगों को या यूँ कहूं की हमारे समाज में ज़्यादातर को नाग़वार सुनाई देता है। “ख़ुदा या ईश्वर के अस्तित्व से ही इनकार करने वाला शक़्स काफ़ीर” क्या बस यहीं तक सिमित है।इसका अर्थ, शायद “हर चीज़ को सामने होता देख फिर उसी की सच्चाई पर सवाल उठाने वाला भी काफ़िर हो सकता है” या काफ़िर शब्द वो लेबल भी हो सकता है, जो असल मुद्दे से भटकाने के लिए कमज़ोरों और तानाशाही से तंग लोगों के हक की लड़ाई लड़ रहे क्रांतिकारियों पर लगाया गया हो। ख़ैर मुद्दा हल तो नहीं होता बस उछाला और भटकाया जाता है उन पियादों के ज़रिये जिन्हें उनके पीछे बैठा कोई तानाशाह हुक्म देता है। ऐसे में शिकार होते हैं वो जो क्रन्तिकारी थे और अब काफ़िर बना दिए गए।
इसी सच्चाई पर अपने मन की व्यथा अपनी एक नज़्म में लिखती है बनारस की शैली मिश्रा ।