literature

हमने दिवाली दिलवाली मनाई

बुराई पर अच्छाई की जीत होने के बाद आईं खुशियों का ये त्यौहार दीपावली, दीयों की रौशनी के बीच श्री राम के आगमन का ये त्यौहार दीपावली, माँ लक्ष्मी की कृपा ले कर आने वाला ये त्यौहार दीपावली। नमस्कार मैं गौरव दुबे एक बार फिर आपके सामने अपनी एक कविता के साथ उपस्थित हूँ। सबसे पहले आप सभी को दीपावली या दिवाली जो भी कहें। आज के इस पावन पर्व की ढे़रों शुभकामनाये…..

आज इस कविता को आप पढ़े, उससे पहले मैं इस कविता के बारे में आपको कुछ बताना चाहूंगा। दिल से पढ़िएगा, तो आपने लोगों से, ख़ास तौर पर पुराने लोगों से ये ज़रूर सुना होगा कि,”अब के त्योहारों में पहले जैसी बात नहीं रही” या “हमारे ज़माने में सही माईनो में त्यौहार मनाये जाते थे, अब तो त्यौहार आते हैं और चले जाते हैं. उनमे कोई रंगत ही नहीं बची” वैसे देखा जाये तो एक तरह से ये बातें सच भी हैं। अब सड़कों पर फटाकों का शोर सुनाई नहीं देता और न ही बच्चों के चेहरों पर पहले जैसी ख़ुशी दिखाई देती है। अब मोबाइल की रोशनी में हम इतना खो जाते हैं की घर को रौशन करना याद ही नहीं रहता, हाँ वैसे ये कविता आप अपने मोबाइल में ही पढ़ रहे हैं तो में बता दूँ कि मैं इसमें खोने की बात कर रहा हूँ, इसका उपयोग बंद करने की नहीं । खैर मैं बता रहा था, हमारे त्योहारों के बारे में, तो हाँ, कुछ हद तक त्यौहार पहले जैसे नहीं रहे। बात करें दिवाली की तो बस ये एक शब्द बन के रह गई है या यूँ कहूं की अब दिवाली दिलवाली नहीं रही। दिलवाली ! जिसे पहले दिल से मनाया जाता था और आज उसी दिलवाली दीवाली या दीपावली को याद करते हुए ये कविता लिखी है और इसे आप अपने अनुभवों से जोड़के पढ़ना क्योकि ये सिर्फ मेरी नहीं हम सबकी कहानी है। कविता का शीर्षक है ” हमने दिवाली दिलवाली मनाई ”

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मैं काफ़िर था ( Kaafir ) – शैली मिश्रा

काफ़िर ( Kaafir ) , ये शब्द कुछ लोगों को या यूँ कहूं की हमारे समाज में ज़्यादातर को नाग़वार सुनाई देता है। “ख़ुदा या ईश्वर के अस्तित्व से ही इनकार करने वाला शक़्स काफ़ीर” क्या बस यहीं तक सिमित है।इसका अर्थ, शायद “हर चीज़ को सामने होता देख फिर उसी की सच्चाई पर सवाल उठाने वाला भी काफ़िर हो सकता है” या काफ़िर शब्द वो लेबल भी हो सकता है, जो असल मुद्दे से भटकाने के लिए कमज़ोरों और तानाशाही से तंग लोगों के हक की लड़ाई लड़ रहे क्रांतिकारियों पर लगाया गया हो। ख़ैर मुद्दा हल तो नहीं होता बस उछाला और भटकाया जाता है उन पियादों के ज़रिये जिन्हें उनके पीछे बैठा कोई तानाशाह हुक्म देता है। ऐसे में शिकार होते हैं वो जो क्रन्तिकारी थे और अब काफ़िर बना दिए गए।
इसी सच्चाई पर अपने मन की व्यथा अपनी एक नज़्म में लिखती है बनारस की शैली मिश्रा ।

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हिम्मत खड़ी मिले मुझे पापा के नाम में

हम अपने जज़्बात अपनी ज़िंदगी में वैसे तो हर शक़्स के साथ बांट लेते हैं, बस नहीं बांट पाते हैं तो अपने पिता के साथ। पिता, पिता जी, बाउजी, पापा, डैड, मुख़्तलिफ़ नाम हैं उस रिश्ते के, जो अपना सब कुछ निछावर कर देता है बस अपने बच्चों के होठों की मुस्कराहट के ख़ातिर। मुझे लगता है आम बोल-चाल की भाषा तो कभी इस लायक नहीं बनेगी की हम उसके ज़रिये अपने दिल की बात कभी पापा से कह पाएं। हाँ, कविताओं के पास ये ताकत जरूर है। ताकत हर तरह के जज़्बात को बयां करने की और जब कुछ बोला नहीं जाता तब लिखा जाता है। वो जो दिल में था, वो जो कहना आसान नहीं था।
कुछ ऐसा ही अपने शब्दों के माध्यम से लिखा है रायसेन के देवनगर में रहने वाले युवा कवि दीपक मेहरा ने..

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