काफ़िर ( Kaafir ) , ये शब्द कुछ लोगों को या यूँ कहूं की हमारे समाज में ज़्यादातर को नाग़वार सुनाई देता है। “ख़ुदा या ईश्वर के अस्तित्व से ही इनकार करने वाला शक़्स काफ़ीर” क्या बस यहीं तक सिमित है।इसका अर्थ, शायद “हर चीज़ को सामने होता देख फिर उसी की सच्चाई पर सवाल उठाने वाला भी काफ़िर हो सकता है” या काफ़िर शब्द वो लेबल भी हो सकता है, जो असल मुद्दे से भटकाने के लिए कमज़ोरों और तानाशाही से तंग लोगों के हक की लड़ाई लड़ रहे क्रांतिकारियों पर लगाया गया हो। ख़ैर मुद्दा हल तो नहीं होता बस उछाला और भटकाया जाता है उन पियादों के ज़रिये जिन्हें उनके पीछे बैठा कोई तानाशाह हुक्म देता है। ऐसे में शिकार होते हैं वो जो क्रन्तिकारी थे और अब काफ़िर बना दिए गए।
इसी सच्चाई पर अपने मन की व्यथा अपनी एक नज़्म में लिखती है बनारस की शैली मिश्रा ।