पत्रकारिता में समाहित है समग्र विषय- डॉ. सुनील

Dr. Ranjan Kumar

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jaankari@jmcstudyhub.com
हमारे विद्यार्थी पारंपारिक पढ़ाई करते हैं जैसे – पत्रकारिता, दूरदर्शन, विज्ञापन, जनसंपर्क, इलेक्ट्रोनिक मीडिया या सिनेमा का इतिहास पढ़ते हैं लेकिन वस्तुतः इनसे संबंधित कितने प्रश्न नेट या सेट इन परीक्षाओं में आज के समय में पूछे जा रहे हैं? यह भी विचारणीय बात है. हमारे विद्यार्थियों को संचारविदों के जीवन और उनकी रचनाओं को देखना होगा.
पत्रकारिता में समाहित है समग्र विषय- डॉ. सुनील

‘जेएमसी स्टडी हब ‘ ने मास कम्युनिकेशन क्षेत्र में अपने अनुभव व मीडिया उद्योग के वर्तमान परिदृश्य के बारे में अंतर्दृष्टि जानने के लिए डॉ.सुनील दीपक घोडके, सहायक प्राध्यापक , (मीडिया अध्ययन विभाग ,महात्मा गांधी केंद्रीय विश्वविद्यालय, मोतिहारी, बिहार ) के साथ बातचीत………

साक्षात्कार की मुख्य बिंदु

  • नेट और सेट के प्रश्न-पत्रों में समाजशास्त्र, अनुवाद, भाषाविज्ञान, मनोविज्ञान जैसे विषयों के ज्यादा प्रश्न.
  • पत्रकारिता और साहित्य का गर्भ-नाल का संबंध है.
  • सोशल मीडिया में विश्वसनीयता का अभाव है लेकिन सामग्री में काफी विविधता है.
  • शिक्षा विकास की एक अनिवार्य शर्त है और साक्षरता शिक्षा की पहली सीढ़ी.
  • पत्रकारिता विषय को पढ़कर कोई भी विद्यार्थी निश्चित रूप से हिंदी में रोजगार प्राप्त कर सकता है.
  • पुस्तक “जनसंचार समितियां, आयोग एवं मीडिया संस्थान” पत्रकारिता के छात्रों के लिए लाभदायक.
  • हिंदी भाषा में शोध कर रहे शोधार्थियों को आनेवाली समस्याओं का निराकरण.
  • शोधार्थियों के लिए शोध गंगा जौसे वेबसाईट ने प्रशंसनीय कार्य किया है.
  • वेबिनार से बहुत सारे अनछुए विषयों की जानकारियों का आदान-प्रदान भी हो रहा है.
  • मैं मीडिया का विद्यार्थी हूँ जिसमें प्रबंधन के सारे गुणों को विकसित किया जाता है.

प्रश्न: आपने सेट और नेट दोनों में सफलता पाई है, तो कृपया बताइए कि ये दोनों परीक्षा किस तरह से भिन्न हैं एवं इन परिक्षाओं की तैयारी कर रहे विद्यार्थियों का मार्गदर्शन करें.

पहले तो आपका बहुत-बहुत धन्यवाद की आपने मीडिया विद्यार्थियों, शोधार्थियों एवं शिक्षकों को इंटरनेट पर अपने वेबसाइट jmcstudyhub.com के माध्यम से बहुत अच्छी सामग्री उपलब्ध करा रहे हैं, इसके लिए आप सभी संयोजक मंडल को प्रणाम, साधुवाद और बहुत सारी शुभकामनाएं.

डॉ.सुनील- जी, आपने सही कहा की वर्तमान समय में अकादमिक जगत में अगर आपको रोजगार पाना है तो उस दृष्टिकोण से यू.जी.सी. नेट अथवा उस राज्य का सेट जहां आपको कार्य करना है, होना बहुत आवश्यक है, क्योंकि आज के समय में प्रतिस्पर्धा भी बहुत ज्यादा बढ़ी है जिस कारण अब इन परीक्षाओं का पैटर्न भी बदल गया है और हमारे विद्यार्थियों ने भी देखा होगा कि जून, 2012 के बाद नेट और सेट के प्रश्न-पत्र में बदलाव हुए हैं. सेट में थोड़े सामान्य प्रश्न पूछे जाते हैं जो राज्य के अनुसार हो. लेकिन पुराने नेट और सेट के प्रश्न-पत्रों का अवलोकन करेंगे तो उसमें जनमाध्यमों से संदर्भित प्रश्नों आते थे. लेकिन अब इसमें बहुत ज्यादा बदलाव हुआ है. अब इसमें समाजशास्त्र, अनुवाद, भाषाविज्ञान, मनोविज्ञान जैसे विषयों के ज्यादा प्रश्न पूछे जाने लगे हैं जो कि बहुत अलग हैं साथ ही जब विद्यार्थी प्रश्न-पत्र हल करके बाहर आते हैं तो कहते हैं कि पता नहीं पत्रकारिता विषय से संदर्भित तो प्रश्न ही नहीं था. लेकिन ऐसा नहीं है, आप उसे ध्यान से पढ़ेंगे तो आपको पता चलेगा कि वे सभी प्रश्न पत्रकारिता विषय से संदर्भित ही है. हमारे विद्यार्थी पारंपारिक पढ़ाई करते हैं जैसे – पत्रकारिता, दूरदर्शन, विज्ञापन, जनसंपर्क, इलेक्ट्रोनिक मीडिया या सिनेमा का इतिहास पढ़ते हैं लेकिन वस्तुतः इनसे संबंधित कितने प्रश्न नेट या सेट इन परीक्षाओं में आज के समय में पूछे जा रहे हैं? यह भी विचारणीय बात है. हमारे विद्यार्थियों को संचारविदों के जीवन और उनकी रचनाओं को देखना होगा. मैं देख रहा था आपके वेबसाइट पर बहुत सारे मीडिया विद्वानों और दार्शनिकों के बारे में आपने संक्षेप में जानकारी दी है, अगर हमारे विद्यार्थी इन संचारविदों को पढ़ेंगे तो निश्चित रूप से उन्हें नेट या सेट निकालने में सुविधा होगी. हमारे विद्यार्थियों को पारंपरिक पुस्तकों के बजाए पत्रकारिता, जनमाध्यम तथा इंटरनेट से संदर्भित विश्वकोश तथा शब्दकोश का उपयोग करना होगा जैसे – समाचार पत्र के लिए भारतीय तकनीकी शब्दावली आयोग द्वारा प्रकाशित शब्दकोश हो या जनसंपर्क के लिए इप्रा (IPRA) द्वारा जारी शब्दावली हो या वीडियो प्रोड्क्शन से संदर्भित शब्द हो इनका अध्ययन भी करना आवश्यक है. साथ ही विद्यार्थियों को जनमाध्यमों के क्षेत्र में हो रहे नित नए बदलावों से संदर्भित तथा माध्यमों से संदर्भित संस्थाओं में निवेश करने वाले व्यापारियों के बारें में जानकारी होना बहुत आवश्यक है साथ ही भारत के महाराष्ट्र और गोवा, तमिलनाडु, मध्य प्रदेश, आंध्र प्रदेश, हिमाचल प्रदेश, जम्मू और कश्मीर, राजस्थान, पश्चिम बंगाल, NE-SLET (जिसमें सभी उत्तर पूर्वी राज्य और सिक्किम शामिल हैं) और कर्नाटक इन राज्यों में सेट परीक्षाओं का आयोजन होता है. जिसमें बहुत सारे राज्य पत्रकारिता विषय में सेट परीक्षाओं का आयोजन करते हैं इन प्रश्न पत्रों का अध्ययन करने से न केवल पत्रकारिता से संदर्भित विषय में आपके ज्ञान में वृद्धि होगी बल्कि जो सेट या नेट में प्रथम प्रश्न-पत्र होते हैं वह भी हल करने को इन राज्यों के प्रश्न पत्रों से मिल जाते हैं, जिसका निश्चित रूप से हमारे विद्यार्थियों को लाभ मिलेगा. 

प्रश्न: आपने अपना स्नातक हिंदी विषय में किया है और आगे स्नातकोत्तर एवं अन्य उपाधियाँ पत्रकारिता एवं जनसंचार विषय में प्राप्त किया हैं तो स्नातक के बाद पत्रकारिता एवं जनसंचार विषय का चयन करने का उद्देश्य?

डॉ.सुनील- निश्चित ही यह आपका प्रश्न बहुत ही उम्दा है, क्योंकि आज के समय में हमारे विद्यार्थियों को भी यह समझ में नहीं आता कि उन्हें करना क्या है? जैसे कि हम सब जानते हैं कि पत्रकारिता और साहित्य का गर्भ-नाल का संबंध है आज का जल्दबाजी में लिखा गया समाचार कल का साहित्य होता है और मैं साहित्य का विद्यार्थी होने के कारण मेरा ध्यानाकर्षण पत्रकारिता की ओर होना स्वभाविक था और मुझे तत्कालीन समय में जो मेरे स्मृतियों पर शहर के पत्रकार हों अथवा बस और ट्रेन में पत्रकारों को विशेष स्थान मिलता था जिससे मैं काफी प्रभावित हुआ कि इन्हें इतना ज्यादा महत्त्व कैसे मिलता है? ऐसे अनेकों प्रश्न मेरे मन मस्तिष्क में तात्कालीन समय में होते थे. जो कि मुझे पत्रकारिता विषय की ओर आकर्षित करते थे. मुझे लगता है कि इस क्षेत्र में आने के लिए कोई भी विषय आपको बाध्य नहीं करता है, क्योंकि पत्रकारिता में तो समग्र विषय ही समाहित है. इसलिए मैंने इस विषय को चुना.

प्रश्न: मुख्यधारा की मीडिया से वर्तमान समय की मीडिया प्रणाली कैसे भिन्न है? (कोविड – 19 के संदर्भ में)

डॉ.सुनील- आज के समय में मुख्यधारा की मीडिया हमें समाज के कुछ चिह्नित क्षेत्रों और विषयों पर ज्यादा केंद्रित नजर आती है लेकिन वहीं दूसरी ओर सोशल मीडिया में विश्वसनीयता का अभाव है लेकिन सामग्री में काफी विविधता है, वह आज के इस माहमारी में आपको शिक्षित और मनोरंजित भी कर रहा है और आपको आपके परिवार के साथ एकत्रित होने का अवसर भी प्रदान कर रहा है. मनोवैज्ञानिक तरीके से आपको मानसिक शान्ति प्रदान करने का कार्य भी कर रहा है. अपने परिजनों को संबल देने का कार्य भी कर रहा है. इसलिए मुझे लगता है कि वर्तमान समय में अभी का आभासी मीडिया आपको शिक्षित एवं जागृत रखने के लिए बेहतर कार्य कर रहा है.

प्रश्न: सतत विकास लक्ष्य को हासिल करने की दिशा में मीडिया की क्या भूमिका है? (आपके एक रिसर्च पेपर ‘सतत विकास के लक्ष्य में मीडिया संतुलन और शैक्षणिक संदर्भ के अनुसार’)

डॉ.सुनील- सतत विकास से हमारा अभिप्राय ऐसे विकास से है, जो हमारी भावी पीढ़ियों को अपनी जरूरतें पूरी करने की योग्यता को प्रभावित किए बिना वर्तमान समय की आवश्यकता को पूरी करे. सतत विकास के लक्ष्यों का उद्देश्य सबके लिए समान, न्यायसंगत, सुरक्षित, शांतिपूर्ण, समृद्ध और रहने योग्य विश्व का निर्माण करना एवं विकास के तीनों पहलुओं, अर्थात सामाजिक समावेश, आर्थिक विकास तथा पर्यावरण संरक्षण को व्यापक रूप से समाविष्ट करना है. हमारे सरकार द्वारा कार्यान्वित किए जा रहे अनेक कार्यक्रम सतत विकास लक्ष्यों के अनुरूप हैं, जिनमें  मेक इन इंडिया, स्वच्छ भारत अभियान, बेटी बचाओ-बेटी पढ़ाओ, राष्ट्रीय ग्रामीण पेयजल कार्यक्रम, राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन, प्रधानमंत्री आवास योजना-ग्रामीण और शहरी दोनों, प्रधानमंत्री ग्राम सड़क योजना, डिजिटल इंडिया, दीनदयाल उपाध्याय ग्राम ज्योति योजना, स्किल इंडिया और प्रधानमंत्री कृषि सिंचाई योजना आदी इसमें शामिल हैं.

मीडिया और शिक्षा दोनों एक-दूसरे से सीधे जुड़े हुए हैं और दोनों एक-दूसरे से काफी समानता रखते हैं. एक ओर मीडिया का उद्देश्य शिक्षा और सूचना का सार्थक माध्यम है, दूसरी ओर शिक्षा का उद्देश्य भी यही है. बौद्धिक-स्तर पर तो सभी यह स्वीकार करते हैं कि शिक्षा विकास की एक अनिवार्य शर्त है और साक्षरता शिक्षा की पहली सीढ़ी. भारतीय मीडिया में आकाशवाणी ने शहरी क्षेत्रों के अतिरिक्त ग्रामीण क्षेत्रों में भी अपनी लोकप्रियता कायम की. आम आदमी की मानसिकता को बदलने में इसकी महत्वपूर्ण भूमिका रही. टेलीविजन की शुरुआत 15 सितंबर, 1959 को भारत में हो जाती है. इसके द्वारा लोगों को साक्षर करने का महत्वपूर्ण उद्देश्य रखा जाता है. अब ग्रामीण निरक्षर भी टेलीविजन पर रामायण, महाभारत के आदर्श पात्रों की भूमिका अपनी आँखों से देखने लगे जिससे दबी संस्कृति का उभार होने लगा. बहुत-सी बातें जब समझ से बाहर होने लगीं तो लोग साक्षर बनने की बात सोचने लगे यानी इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ने उनमें एक नई चेतना विकसित की. पढ़ने-लिखने के अतिरिक्त व्यक्ति के दैनिक जीवन को प्रभावित करने वाले आयामों को भी इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ने प्रभावित किया. अब हमारा ध्यान साक्षरता और ग्रामीण विकास, साक्षरता एवं बेरोजगारी, साक्षरता एवं पर्यावरण तथा साक्षरता एवं कृषि की ओर जाने लगा. इस आधार पर मुझे लगता है कि सतत विकास के लक्ष्य को हासिल करने की दिशा में मीडिया की बहुत बड़ी भूमिका है.

प्रश्न: पत्रकारिता के वे विद्यार्थी जिनकी हिंदी भाषा में कलात्मक अभिरुचि व प्रतिभा है उनके लिए मीडिया क्षेत्र में रोजगार की क्या-क्या संभावनाएं है?

डॉ.सुनील- मुझे लगता है कि चाहे हिंदी साहित्य का विद्यार्थी हो या विज्ञान का आज के समय में तो विज्ञान क्षेत्र के बहुत सारे विद्यार्थी पत्रकारिता विषय से जुड़े हैं इसका कारण भी है जो मुझे भी उस समय इस विषय की ओर आकर्षित करता था कि इसमें विविधता बहुत है और कार्य करने के क्षेत्र भी बहुत हैं, जैसे – स्क्रिप्ट राइटर (रेडियो लेखन, टेलीविजन समाचार, टेलीविजन धारावाहिक, फिल्म, विज्ञापन और वृत्तचित्र), पत्रकार से लेकर संपादक तक चाहे वह प्रिंट में या इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में इनमें काफी श्रेणियाँ आती हैं आर्थिक, गुनाह, सांस्कृतिक, सिनेमा, खेल, व्यवसाय, कृषि, विज्ञान, कार्टून, राशिफल, राजनीति राज्य की, देश की या विदेश की, विदेशी संवाददाता, प्रेस संस्थान पीटीआई, यूएनाअई, हिन्दुस्तान, वीडियो संपादक, अनुवादक, डबिंग या जनसंपर्क अधिकारी तथा अकादमी जगत ऐसे अनेक रोजगार के अवसर इस विषय से जुड़कर मिल सकते हैं. एक ही विषय को पढ़कर इतने विविध क्षेत्रों में कार्य करने के अवसर मुझे लगता है कि यही विषय देता है जिसे पढ़कर कोई भी विद्यार्थी निश्चित रूप से हिंदी में रोजगार प्राप्त कर सकता है.

प्रश्न: आपकी एक पुस्तक है “जनसंचार समितियां, आयोग एवं मीडिया संस्थान”, यह पुस्तक पत्रकारिता के छात्रों के लिए कितनी लाभदायक है? 

डॉ.सुनील- पत्रकारिता एवं जनसंचार के एक छात्र के रूप में मुझे यह प्रतीत होता रहा कि जनसंचार एवं पत्रकारिता एक रूचिकर विषय है तथा इस क्षेत्र में शैक्षणिक संस्थओं और छात्रों की संख्या में वृद्धि हो रही है, तो दूसरी ओर इस विषय पर पुस्तकों की कमी महसूस होती थी. यद्यपि अंग्रेजी भाषा में जनसंचार समितियां, आयोग एवं संस्थान विषयों पर अनेक स्तरीय पुस्तकें उपलब्ध हैं, परंतु हिंदी भाषी विद्यार्थियों एवं विषय में रूचि रखने वाले अध्येताओं हेतु हिंदी में इस विषय पर पाठ्य पुस्तकों का अभाव है ऐसा मुझे अध्ययन करते समय प्रतीत हुआ. अत: मेरे द्वारा इस विषय पर हिंदी में पुस्तक लेखन इस अभाव की पुर्ती का एक विनम्र प्रयास है.

पुस्तक में मूलतः दो भाग हैं. प्रथम भाग में स्वतंत्रता पूर्व भारत तथा विदेश में गठित समितियों और आयोग को एवं स्वतंत्रता के पश्चात गठित समितियों और आयोग के संस्तुतियों का उल्लेख किया गया है. पुस्तक के दूसरे भाग में समितियों और आयोग के संस्तुतियों के बाद गठित नवीनतम संस्थाओं का उल्लेख तो किया गया ही है साथ ही में समाचार-पत्र, विज्ञापन, रेडियों तथा टेलीविजन माध्यमों के लिए कार्यरत राष्ट्रीय, अंतर्राष्ट्रीय संगठन का उल्लेख भी किया गया है. परिशिष्ट में जनसंचार से संबंधित विभिन्न मीडिया संघटन के अध्यक्षों की सूची शामिल है.

मूलतः इस संकल्प के पीछे मेरी दृष्टि में यह पुस्तक पत्रकारिता एवं जनसंचार के स्नातकोत्तर पाठ्यक्रमों का अध्ययन करने वाले विद्यार्थियों के लिए तो मुख्यतः उपयोगी हों ही, साथ ही साथ इन विषयों के नवीन शिक्षकों और समाचार-पत्रों में कार्यरत पत्रकारिता के चौथे धर्म का पालन करने वाले नए पत्रकारों के लिए भी समान रूप से उपयोगी हो और कहना न होगा कि सामान्य पाठकों तथा इस विषय में रूचि रखनेवाले जिज्ञासुओं के लिए भी यह पुस्तक उन्हें जनसंचार से संदर्भित विभिन्न समितियों, आयोग और संगठनों के गठन की जानकारी देने में सफल साबित होगी. इस पुस्तक में प्रकाशित सामग्री के पीछे मेरी यही मंशा है.  

प्रश्न: हिंदी भाषा में शोध कर रहे शोधार्थियों को किस तरह की समस्याएं आती हैं व इनका निराकरण कैसे करना चाहिए ?

डॉ.सुनील- किसी भी देश के सतत विकास के लिए उस देश में किए जा रहे शोध कार्य बहुत महत्वपूर्ण होते हैं. क्योंकि शोध नवीन वस्तुओं की खोज और पुराने वस्तुओं एवं सिद्धान्तों का पुनः परीक्षण करता है, जिससे कि नए तथ्य प्राप्त होते हैं, तथा उन तथ्यों के आधार पर सरकारे नित नई योजनाओं का क्रियान्वयन करते हैं साथ ही उसका मूल्यांकन भी करते हैं. भारत में 1 जून, 2020 तक 945 विश्वविद्यालय हैं. अब शोध कार्य की स्थितियों में काफी सुधार हुआ है एवं बहुत सारे शैक्षिक संस्थानों में हिंदी भाषा में शोध कार्य किए जा रहे हैं. आज के समय में 53 केन्द्रीय विश्वविद्यालय हैं जो कि अपने शोधार्थियों को छात्रवृत्ति के द्वारा आर्थिक मदद प्रदान करते हैं.  इसी तरह से यू.जी.सी., आई.सी.एस.एस.आर और अन्य संस्थाएं भी मदद कर रही हैं, जिससे शोधकर्ताओं को आर्थिक साहयता प्राप्त हो रही है, पहले इसमें बहुत कठिनाई आती थी अब भी है लेकिन उसकी संख्या में कमी आई है. साथ ही पहले हिंदी भाषा में शोध पद्धति से संदर्भित पुस्तकों का अभाव था लेकिन आज के समय में इस विषय पर बहुत सारे पुस्तक बाजार में उपलब्ध हैं, इसमें न्यू मीडिया ने भी महती भूमिका निभाई है. आज के समय में शोधार्थियों के लिए शोध गंगा shodhganga.inflibnet.ac.in इस वेबसाईट ने प्रशंसनीय कार्य किया है. आज आपको किसी भी विश्वविद्यालय के शोध कार्य को अगर देखना है तो आप घर बैठकर एक क्लिक करके देख सकते हैं. बस इसमें सभी विश्वविद्यालयों का अपना सहयोग देकर निरंतर अपने यहाँ किए जा रहे शोध कार्यों को वेबसाईट पर समय-समय पर अपलोड किया जाना चाहिए. पहले समय में लोगों को टंकण में समस्या आती थी जिसे गूगल इंडिक फॉण्ट (मंगल) ने लगभग समाप्त किया. अब आप जिस तरह से बोलते हैं उसी तरीके से आपको वह फॉण्ट लिख कर देता है. आज के समय में बहुत सारे शोधार्थी वाट्सएप पर बोलकर लिखने का कार्य कर रहे हैं जिससे उन्हें शोध कार्य के लेखन में काफी मदद हो रही है. पहले प्रश्नावली को डाक द्वारा भेजा जाता था लेकिन अब गूगल फॉर्म का निर्माण कर अपने प्रश्नों को उसमें जोड़कर आप खुली या बंद प्रश्नावली को एक लिंक के द्वारा भरवाया जा रहे है वह भी हिंदी भाषा में. साथ ही इसमें आपका पता, मोबाइल नंबर, इमेल आईडी, और उत्तरदाता की निजी जानकारी भी बहुत आसानी से गोपनियता के साथ उसमें भरवा सकते हैं. आपको इसमें ग्राफ चार्ट के साथ उत्तर का प्रतिशत भी बहुत सरल तरीके से प्राप्त हो रहा है. एस.पी.एस.एस. नाम का सोफ्टवेयर भी बहुत अच्छे से हिंदी भाषा में डेटा को फिल करने पर उत्तर दे रहा है. आप साक्षात्कार प्रश्नावली भी इमेल या सोशल मीडिया द्वारा उत्तरदाता के पास भेज कर भरवा सकते हैं. तो मुझे लगता है कि आज के समय में हिंदी भाषा में शोध-कार्य कर रहें शोधार्थियों का बहुत सुगमता से शोध-कार्य कर रहें हैं और इसके परिणाम भी सटीक प्राप्त हो रहे हैं.     

प्रश्न: वर्तमान में सेमिनार की जगह वेबिनार होने लगे हैं तो इसकी प्रासंगिकता कितनी है?

डॉ.सुनील- जी बिल्कुल, जबसे भारत में कोरोना वायरस का प्रादुर्भाव बढ़ा है, इससे हमने अपने प्लेटफार्म बदल लिए हैं, जिसमें ढेरों सॉफ्टवेयर है जो आपको इस तरह के आयोजन के लिए स्थान देते हैं चाहे गूगल मीट, फेसबुक या ऐसे अनेकों माध्यमों द्वारा इस तरह के वेबिनार का आयोजन आज के कोरोना काल के समय में हो रहा है. इससे हमारा जो दर्शक है उन्हें उनके विषयों से संबंधित बहुत सारी जानकारी अपने घर पर बैठे ही नि:शुल्क मिल रही है. आज के समय में विषय-विशेषज्ञ भी इस तरह के आयोजन में बढ़-चढ़ कर भाग ले रहें हैं. इससे बहुत सारे अनछुए विषयों की जानकारियों का आदान-प्रदान भी हो रहा है वह भी बिना यात्रा किए. साथ ही देश के किसी भी विश्वविद्यालय के कार्यक्रम में बस उसके आईडी और पासवर्ड के द्वारा दर्शक सीधे जुड़ पा रहें हैं न केवल इसमें देश के बुद्धिजीवियों द्वारा प्रतिभागिता की जा रही है बल्कि विदेशी बुद्धिजीवियों को भी इस तरह के वेबिनार में आमंत्रित किया जा रहा है वह भी बिना यात्रा. भले ही आज के समय में वेबिनार पर यू.जी.सी. द्वारा कोई दिशा-निर्देश नहीं आया है लेकिन निश्चित ही निकट समय में यू.जी.सी. इस विषय पर जरुर विचार करेगी ऐसी मुझे अपेक्षा है. आज हमारे प्रतिभागियों को इसके प्रमाण-पत्र का लाभ नहीं मिल पा रहा है लेकिन उनके रचनात्मक कार्यों को एक दिशा प्रदान करने में इस तरह के आयोजन का लाभ मिल सकता है. साथ ही यह हमें इस महामारी में व्यस्त रख रहा है इसलिए इस तरह के आयोजनों की प्रासंगिकता आज बहुत ज्यादा है.  

प्रश्न: आप बहुत से पत्रिकाओं और कार्यक्रमों के सदस्य एवं को-कनवेनर रहे हैं जिसमें आपकी भूमिका एवं जिम्मेदारी सराहनीय रही है तो एक संगठन को चलाने के लिए किस तरह की चुनौतियाँ आती हैं और इन चुनौतियों का सामना कैसे करना चाहिए? 

डॉ.सुनील- आज के समय में यह बहुत ही महत्वपूर्ण प्रश्न है, किसी भी कार्य को करने के लिए आपको प्रबंधन की बहुत आवश्यकता होती है बिना प्रबंधन के आप अपने दिनचर्या को भी सुव्यवस्थित नहीं कर सकते. इसलिए आप किसी भी संगठन में कार्य कर रहें हो तो उसमें प्रबंधन की आवश्यकता बहुत आवश्यक समझी जाती है और मुझे ख़ुशी है कि मैं मीडिया का विद्यार्थी हूँ जिसमें प्रबंधन के सारे गुणों को विकसित किया जाता है. किसी भी कार्यक्रम को करने हेतु नियोजन, एकत्रीकरन या संगठन, जो कार्य कर रहें हैं उसके लिए दायित्वों का निर्धारण, मार्गदर्शन, संदेशवाहन, नेतृत्व और नियंत्रण बहुत जरुरी है. कभी-कभी कुछ कार्यक्रमों में कुछ गलतियां संगठन के सदस्यों द्वारा हो सकती है लेकिन मुझे लगता है कि नियंत्रक को विकल्प में उसका एक विकल्प भी रखना आवश्यक है. ना कि जिस सदस्य ने गलती की है उसे उस समय डांटने के बजाए मृदु भाषी होकर उसे उस अनुभव से सीखने की सलाह देनी चाहिए निश्चित ही इसका लाभ संगठन द्वारा भविष्य में किए जा रहे कार्यक्रमों में हमें देखने को मिलता है. साथ ही किसी भी कार्य को करने के लिए आपस में ताल-मेल रखने के लिए बैठकों को रखना तथा कार्यक्रम या कार्य होने के पश्चात समीक्षा बैठक करना बहुत आवश्यक है जिससे हमें क्या अच्छा हुआ अथवा क्या कमी रही इसकी सीख मिलती है. बहुत बार संगठन में कार्य करते समय आपको आंतरिक समस्याओं का सामना हो सकता है चाहे वह वित्तीय हो अथवा कुछ अन्य लेकिन आपको अपना ताल-मेल आपके संगठन के मुखिया के साथ रखना बहुत आवश्यक है. कभी-कभी यह ताल-मेल नहीं होने पर भी आंतरिक समस्या निर्माण होने की संभावना अधिक रहती है. बाह्य समस्याओं की संख्या भी कम नहीं, हम उसके लिए एक उदाहरण भी लें सकते हैं मान ले कि आपका संगठन बहुत अच्छा कार्य कर रहा होता है उस समय समाज के कुछ तत्व ऐसे भी होते है जिन्हें आपके द्वारा किए जा रहे कार्य पसंद नहीं आते तब वह आपके बारे में विभ्रामक प्रचार करना शुरू करते हैं उस समय आपके जनसंपर्क अधिकारी और आपके बीच अच्छा ताल-मेल होना चाहिए जिससे संगठन या उसके द्वारा किए जा रहे कार्यों का स्पष्टीकरण बेहतर तरीके से दे सकें और भ्रामक प्रचार को रोक सकें. इसमें आपको अपने ऊपर भी नियंत्रण रखना बहुत आवश्यक है. इन बिंदुओं को अगर कोई भी सदस्य या आयोजक आत्मसात करे तो संगठन का कार्य बहुत अच्छे से होगा.

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